Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



63. राजपुत्र विदूडभ : वैशाली की नगरवधू


राजकुमार विदूडभ ने आचार्य के निकट आ अभिवादन कर आसन पर बैठकर कहा -

“ आपने मुझे स्मरण किया था आचार्य ? ”

“ तुम्हारा कल्याण हो राजकुमार! मुझे भासता है कि तुम्हें मेरी आवश्यकता है। ”

“ किसलिए आचार्य ? ”

“ अपने गुरुतर उद्देश्य की पूर्ति के लिए। ”

“ आप किस संदर्भ का संकेत कर रहे हैं आचार्य ? ”

“ तो क्या तुम मेरा संकेत समझे नहीं , कुमार ? ”

“ आचार्य कुछ कहें तो । ”

“ अरे , श्रावस्ती में कितना अनर्थ हो रहा है आयुष्मान् ? ”

“ कैसा अनर्थ ? ”

“ यह श्रमण गौतम क्या राजा -प्रजा सभी को नष्ट कर डालेगा ? ”

“ ऐसी आप कैसे कल्पना करते हैं ? ”

“ तो तुमने नहीं सुना कि सेठ सुदत्त ने जैतवन को कुमार जैत से अठारह करोड़ स्वर्ण में मोल लेकर गौतम को भेंट कर दिया ! ”

“ सुना है आचार्य ! ”

“ और विशाखा ने जो सात खंड का पूर्वाराम मृगारमाता-प्रासाद बनाया है सो ? ”

“ वह भी जानता हूं। ”

“ राजमहिषी मल्लिका नित्य वहां जाती हैं ? ”

“ जाती तो हैं । ”

“ और यह जो श्रावस्ती, साकेत , कौशाम्बी और राजगृह के राजमुकुट और सेट्रियों का द्वीप - द्वीपान्तरों से खिंचा चला आता हुआ सुवर्ण उसके चरणों में एकत्र हो रहा है ? ”

“ तो आचार्य, मैं क्या करूं ? ”

“ अरे आयुष्मान्, एक दिन कोसल के अधिपति तुम होगे या यह श्रमण गौतम ? ”

“ किन्तु मैं तो दासीपुत्र हूं आचार्य, कोसल का उत्तराधिकारी नहीं ? ”

“ शान्तं पापं ! और मैंने जो गणना की है सो ? आयुष्मान, तुम्हीं कोसल के सिंहासन को आक्रान्त करोगे एक दिन , परन्तु तब तक तो जम्बू -द्वीप की सारी सम्पदा इस गौतम के चरणों में पहुंच चुकेगी , सम्पूर्ण राजकोष खाली हो जाएंगे, सम्पूर्ण तरुण भिक्षु हो जाएंगे, संपूर्ण सेट्ठियों और श्रेणिकों का धन उसे प्राप्त हो जाएगा । अरे पुत्र, क्या तुम नहीं देख रहे हो -यह धूर्त शाक्यपुत्र गौतम धर्म - साम्राज्य की आड़ में अर्थ- साम्राज्य स्थापित कर रहा है , जो तुम्हारे सामन्त -साम्राज्य को खोखला कर देगा । ”

“ यह आप क्या कह रहे हैं आचार्य ? ”

“ अरे पुत्र , तुम कहां से बलि ग्रहण करोगे ? कहां से सैन्य - संग्रह करोगे ? वाणिज्य व्यापार कैसे चलेगा ? सभी तरुण तो भिक्षु हो जाएंगे ! सभी संपदा तो उसी शाक्य श्रमण के चरण चूमेगी! तब तुम श्री , शक्ति रोष और सैन्यहीन राजा राज्य -संचालन कैसे करोगे आयुष्मान् ? ”

“ आपके कथन में सार प्रतीत होता है आचार्य! ”

“ इसे रोको आयुष्मान्, और तुम्हारा वह मातुल - कुल ? ”

“ शाक्य - कुल कहिए भन्ते आचार्य , मैं उसे आमूल नष्ट करूंगा। ”

“ तुम्हें करना होगा पुत्र ! और यह पितृ कुल भी ? ”

“ इसे भी मैं नष्ट करूंगा। ”

“ तभी तुम कोसल के सिंहासन पर आसीन होगे। सुनो आयुष्मान् , मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, तुम्हारा कण्टक मुझे ज्ञात है। ”

“ वह क्या है आचार्य ? ”

“ बंधुल मल्ल और उसके बारहों पुत्र -परिजन। बंधुल के ऊपर निर्भर होकर राजा राजकाज से निश्चिन्त हो गया है , बंधुल स्वयं अमात्य हो गया है और उसने अपने बारहों पुत्र - परिजनों को सेना और राजकोष का अधिपति बना दिया है । ये जब तक जीवित हैं तुम्हारा स्वप्न सिद्ध नहीं होगा । ”

“ परन्तु आचार्य , मैं समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”

“ मूर्खता की बातें हैं आयुष्मान् ! तुम्हारा यह उद्गीव यौवन प्रतीक्षा ही में विगलित जो जाएगा । फिर उसी के साथ साहस और उच्चाकांक्षाएं भी । मित्रगण निराश होकर थक जाएंगे और वे अधिक आशावान् शत्रु को सेवेंगे। तुम आयुष्मान्, समय को खींचकर वर्तमान में ले आओ। ”

“ किस प्रकार आचार्य ? ”

“ कहता हूं , सुनो । इस बंधुल और उसके बारहों पुत्र - परिजनों को नष्ट कर दो आयुष्मान्, और बंधुल के भागिनेय दीर्घकारायण को अपना अंतरंग बनाओ, इससे तुम्हारा यन्त्र सफल होगा । दीर्घकारायण, बंधुल और राजा , दोनों से अनादृत और वीर पुरुष है। ”

“ परन्तु यह अति कठिन है आचार्य ! ”

“ अति सरल आयुष्मान् ! वत्सराज उदयन सीमान्त पर सैन्य - संग्रह कर रहा है । कलिंगसेना के अपहरण से वह अति क्रुद्ध है । महाराज को भय है कि विवाह और यज्ञ में वह विघ्न डालेगा । ”

“ यह मैं जानता हूं। महाराज ने उधर सेनापति कारायण को भेजा है। ”

“ मैं ऐसी व्यवस्था करूंगा कि सेनापति कारायण को सफलता न मिले आयुष्मान्! ”

“ इससे क्या होगा आचार्य ? ”

“ तब तुम महाराज और बन्धुल को उत्तेजित करके बन्धुल के बारहों पुत्र - परिजनों को सीमान्त पर भिजवा देना और कारायण को राजधानी में वापस बुलाकर राजा से अनादृत कराना। ”

“ मैं ऐसा कर सकूँगा। ”

“ बन्धुल के बारहों पुत्र - परिजन सीमान्त से जीवित नहीं लौटेंगे और बन्धुल को स्वयं उस अभियान पर जाने को विवश होना पड़ेगा। बिम्बसार को पराजित करके वह गर्व तो बहुत अनुभव करता है, पर उसका सैन्य -संगठन इस युद्ध में छिन्न -भिन्न हो गया है आयुष्मान् , उसे कौशाम्बीपति और उसके अमात्य यौगन्धरायण से लोहा लेने में बहुत सामर्थ्य खर्च करना पड़ेगा । ”

“ किन्तु बन्धुल के बारहों पुत्र- परिजनों का निधन कैसे होगा आचार्य ? वे सब भांति सुसज्जित और संगठित हैं । ”

“ उनकी चिन्ता न करो आयुष्मान् ! पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्यवान् महामात्य यौगन्धरायण मेरा बालमित्र है। मैं आवश्यक संदेश आज ही पायासी महा सामन्त को सीमान्त भेज दूंगा । बन्धुल के पुत्र - परिजनों का वध सीमान्त पहुंचने के प्रथम ही हो जाएगा। ”

“ यह तो असाध्य - साधन होगा भन्ते आचार्य ! ”

“ और एक बात है, पायासी कारायण के साथ साकेत को लौटेगा । मार्ग ही में वह उसे तुम पर अनुरक्त कर देगा । साकेत पहुंचने पर और महाराज से अनादृत होने पर उसे भलीभांति समादृत करके मित्र बना लेना तुम्हारा काम है । ”

“ इस सम्बन्ध में आप निश्चिन्त रहें आचार्य ! ”

“ तो पुत्र, इसी यज्ञ - समारोह में तुम्हारी अभिसन्धि पूरी होगी । किन्तु एक बात है। ”

“ क्या ? ”

“ अनाथपिण्डिक सुदत्त शाक्य गौतम का जैतवन में नित्य स्वागत करता है। ”

“ हां आचार्य, मुझे ज्ञात है । ”

“ जाओ तुम भी और श्रमण से कपट- सम्बन्ध स्थापित करो। ”

“ आचार्य , क्या उसे मार डालना होगा ? ”

“ नहीं आयुष्मान्, वह अभी जीवित रहना चाहिए । वह इन सब राजाओं को , सेट्टिपुत्रों को मार डालेगा । ये ही आज तुम्हारे शत्रु हैं । आयुष्मान , अभी उसे अपना कार्य करने दो । परन्तु यह श्रमण विशाखा के पूर्वाराम मृगारमाता - प्रासाद में कब जा रहा है ? ”

“ इसी पूर्णिमा को , आचार्य ! ”

“ उसी समय राजमहिषी मल्लिकादेवी भी गौतम से दीक्षा लेंगी ? ”

“ ऐसी ही व्यवस्था सेट्रि - पुत्रवध विशाखा ने की है । ”

“ तो तू ऐसा कर सौम्य कि बन्धुल मल्ल की पत्नी मल्लिका भी उस श्रमण के चंगुल में फंस जाए , वह भी राजमहिषी के साथ ही दीक्षा ले। ”

“ यह तो अतिसरल है आचार्य! उससे मेरा अच्छा परिचय है। मैं उसे सहमत कर लूंगा। ”

“ श्रमण की खूब प्रशंसा करो आयुष्मान् और राजमहिषी के साथ ही गौतम के पास जाने की उसे प्रेरणा दो । दे सकोगे ? ”

“ दे सकूँगा। मैं जानता हूं, महिषी का उस पर बहुत प्रेमभाव है। ”

“ यह बहुत अच्छा है आयुष्मान्! और एक बात याद रखो। ”

“ वह क्या आचार्य ? ”

“ वही करो जो उचित है। ”

“ उचित क्या है ? ”

“ जो आवश्यक है , वही उचित है आयुष्मान्। ”

विदूडभ ने हंसकर कहा - “ आचार्य, आपका धर्म गौतम की अपेक्षा बहुत अच्छा है । ”

“ परन्तु आयुष्मान्, यह धर्म - पदार्थ एक महा असत्य वस्तु है। इसे केवल पर - धन हरण करने और उसे शान्ति से उपभोग करने के लिए ही कुछ चतुरजनों ने अपनाया है । इससे प्रिय , तुम किसी की ठगाई में न आना। धर्म के सत्य रूप को समझना और उससे भय न करना । उससे काम लेना और जो उचित हो , वही करना। ”

“ समझ गया आचार्य ! राजगृह के उस तरुण वैद्य के पास कुछ अति भयंकर विष हैं , परन्तु वह उनसे काम लेना जानता है। वह जो उचित है, वही करता है । वह कहता है , ऐसा करने से ये सब भयानक विष अमृत का काम देते हैं , उनसे मृतप्राय आदमी जी उठते हैं । ”

“ ऐसा ही है आयुष्मान्! अब तुम इस त त्त्व को भली - भांति समझ गए । अब जाओ तुम प्रिय , तुरन्त साकेत जाकर शुभ कार्य का अनुष्ठान करो। ”

“ अच्छा भन्ते ! ”कहकर राजकुमार ने उठकर आचार्य को अभिवादन किया और आचार्य ने दोनों हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद दिया ।

राजकुमार विदा हुए ।

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